Professor Ki Diary ( Winner Best Non-Fiction Book In Hindi Category ) 2024
D**N
An Honest and Fearless work
I read an interview of Professor Noam Chomsky more than two decades back where the interviewer said that ‘Professor Chomsky despite being an American citizen and academic, you are considered as the greatest critique of American foreign policy’, how would you respond to that ? Professor Chomsky said that it is the primary duty of an academician to speak and expose “truth and truth alone” irrespective of the fact whether it goes against a particular regime or policy makers or a particular institution or even against the speaker himself.The reply of Professor Noam Chomsky aptly defines the true responsibility of an academician which the author of this book honestly performs through the book under review.This outstanding work is an engaging story of a struggling academician who has the courage to speak the truth fearlessly. The book raises various foundational questions on modern education system and the dire need to bring required changes in the system to produce enlightened citizenry. It is an original, systematic, coherent, thoughtful and touching book. The author touchingly says that now Delhi does neither have that sight nor have that heart which could see the pain of those who lie on the fringe or some corner. The book comes from an intellectual engaged in deep analysis as is the case with intellectuals of all times. A book which seems a mandatory read for the valuable ideas it contains.
K**A
जो तेरे भीतर सोये देवत्व को जगा दे
ग़ज़ा की उदास अकेली बालिका सरीखी, भोली भाली छोटी सी पुस्तिका से, संवेदनशील सुधि पाठकों व प्रबुद्ध सह-नागरिकों का भावनात्मक जुड़ाव देख बहुत अच्छा लगा |संभावनाओं का सीमान्ती- या सामन्तीकरण नहीं हुआ है |शिक्षा और खोज का मनुष्य व सृष्टि में नैसर्गिक प्रवाह कोई रोक नहीं सकता भले ही मानवीय लोभ और कुटिलता के कई कच्चे पहाड़ टूट कर इस पर गिर पड़ते हों |सत्ता के दायरों में पनपती कुंठा और विकृति की तलछट नौकरी तो छीन सकती है पर केन प्रश्नों पर प्रतिबन्ध लगाकर क्या उपनिषदों को नकार पायेगी? समय का कोई भी दौर इतना प्रबल नहीं "..कि सवाल पैदा करने वाली जगहों को ही कमज़ोर" (पृ.सं.९) कर तोड़ दे|पुस्तक का अपना प्रकरण है जो कि स्व-अनुभव से ज़्यादा सार्वजनिक होता जा रहा है| यह एक लोक सन्दर्भ है और उसी में उसकी अर्थपूर्ण सार्थकता है; और प्रमाणिकता भी | क्योंकि कभी भी, कहीं भी, मानवीय व्यवहार के समष्टिगत प्रतिरूपों का निर्माण समकालीन और ऐतिहासिक सन्दर्भों से ही निर्मित होता है जिसमें चेष्टाओं और क्रियाओं से जुड़े या वांछित प्रभाव, सामाजिक प्रक्रियाओं और अवस्था का निर्माण करते हैं. कारण और प्रभाव से बढ़ कर सन्दर्भ और उनकी प्रबलता वास्तविकता और भविष्य दर्शन का निर्माण और उसे अभिव्यक्त करते हैं. अभी बहुत कुछ बाक़ी है जो कि अभिव्यक्त और प्रगट नहीं हुआ | और जो हुआ और हो रहा है उसमें शक्ति है उस नए प्रकल्प को आगे बढ़ाने की जिस खातिर लेखक ने रोहित विमूला को पत्र में लिखा: " (तुम्हें) लड़ना था साथी, माना कि लड़ना कतई आसान न था | माना कि जाते हुए भी हज़ारों वर्षों के संघर्ष को एक तीखी नोक में बदल दिया तुमने |" (प्र. सं. ९७).यह भी लिख देते कि समय टेलीस्कोपिक हो गया है| जो पहले हज़ारों साल में हुआ वह अब हज़ार घंटों में भी हो जाना संभव है|लेखक के कहे वाक़्यात को बैनुलाकुवामी और कौमी नज़रिये से देखा जाए तो साफ़ नज़र आता है कि Rightist सियासत अक्सर कुछ ऐसे नज़रियों से गरम रहती हैं जिसमें: १. अवाम को इंसानी मक़बूलियत हासिल नहीं; उन्हें नंबर भी नहीं; सिर्फ सियासी, money और फौजी ताक़त का ग़ुलाम समझा जाता है; २. इस सियासत का कोई इंसानी-रूहानी -दुनियावी नज़रिया लेकर कोई मुस्तक़बिल नहीं होता; कोई फ्यूचर प्रोजेक्ट नहीं होता, बस रोज़-बरोज़ हंगामा ही होता है; किस्म किस्म की मारपीट और हिंसा होती रहती है स्टेट फार्मेशन भी नहीं; और३. यह सियासत होती तो है धूर्त, चालाक और बहुत हीi खुदगर्ज़ लोगों की; पर वे छुपे होते हैं. सामने की पॉलिटिक्स में उनके वे पैदल सिपाही होते हैं जो अक्सर हीनता के अहंकार से लबालब, मदमस्त और छलकते अंध-आत्मविश्वास में कुछ भी कर गुजरने का जनून रखते हैं.ऐसी सत्ताएं नहीं चाहतीं कि समाज में मन, बुद्धि, जिज्ञासा व चैतन्य विकास हो |जब एक कालखंड में राजनीति और राज्य सत्ता के पास कोई भविष्योन्मुख आख्यान न हो जैसा कि दिख रहा है; ज़रा देखो चारों ओर- "ग्रेट" ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, कनाडा, तुर्किये, जर्मनी या इजराइल... , ...., ...., ...., ...., . . . . . . . European Union और रूस भी; और फिर दक्षिण एशिया में अधिकांशतः जम्हूरियत को जमूरा बनाती; भावना शून्य, विवेकशून्य, चित-वृत्ति और विचारधारा विहीन; बस राज करने के जूनून और ललक पर सवार सरकारों के पास कोई भविष्य दर्शन और आख्यान नहीं. तो ऐसे में क्या होता है? दिखता है कि बस कुछ नहीं.प्रोफेसर की डायरी से पता चलता है कि स्टेट अनुत्तीर्ण हुआ अकादमिक कसौटी पर भी.भारत की ८० प्रतिशत जनता ऐसे वर्ग में आ गयी जिसके पास इतने पैसे और व्यवहारिक समानता नहीं जिसके चलते वह स्टेट के वर्तमान आर्थिक तंत्र और नीतियों पर आधारित शिक्षा जैसे नैसर्गिक और संविधानिक अधिकार को प्राप्त कर सके. क्योंकि आरक्षण के विरुद्ध "मेरिट" का दम ठोकने वालों को, शिक्षा के आरक्षित क्षेत्र से आने वाली "मेरिट" फूटी आंख नहीं सुहाती. तो कमी कहाँ कहाँ है?लेखक का कहना है: कमी है शिक्षा को विकसित मानव-समष्टि के नैसर्गिक अधिकारों से अलग कर उसे राज्य द्वारा वस्तु बना कर विशिष्ट वर्ग के हित में पूँजी जमाखोरों के हाथों में बेच देना. कमी है पिछड़ी जाति और लोकतंत्र द्वारा मान्य राजनीतिक प्रतिद्वंदिता को सत्ता में और समाज में हमारे ही द्वारा दी गयी शक्तियों से संपन्न वर्ग द्वारा हमारा ही शोषण और अन्याय जिसके कारण यूनिवर्सिटी का स्तर गिरता जा रहा है, देश के बच्चों का शैक्षणिक स्तर कमज़ोर होता जा रहा है, और समाज पीछे जा रहा है. " एक आम अनपढ़ इंसान भी पेट काट कर , ज़रुरत पड़ी तो खेत-खलिहान, जगह-ज़मीन, गहने-गुरिया गिरवी रख कर भी अपने घर के बच्चे को पढ़ने लिखने भेजता रहा | धीरे धीरे रोज़गार और तालीम का रिश्ता टूटने लगा| शिक्षा का चरित्र समाजवादी से पूंजीवादी होता चला गया|" (पृ. सं. ४५).और सब से बड़ी बात कि लेखक, उनंके विद्यार्थी, उनके कॉलेज और समाज के साथ अन्याय हुआ है क्योंकि लेखक के पास पूर्ण योग्यता है कि वे प्रोफेसर के पद पर पक्के हों पर उन्हें एड-हॉक पोजीशन से भी १४ साल की मेरिटोरियस सेवा के बाद नौकरी से निकाल दिया गया; उनकी शैक्षणिक योग्यता का उनके इंटरव्यू में मखौल उड़ाया गया; और बड़ी से भी बड़ी बात- इस बात का पता है उन सब विद्यार्थियों को जो उनकी इज़्ज़त करते है; और उस समाज को भी जिन्हें अपने धर्मों में गुरुओं की इज़्ज़त करनी सिखाई जाती रही है. वे भी "गुरु" हैं जो की दूसरी तरफ बैठे थे.पर क्या यह संभव है हर उस के लिए जिसे शिक्षा न मिल पायी - सिर्फ ग़रीबी के चलते; या ग़रीबी और जाति आधारित सामाजिक अन्याय के कॉम्बो के चलते; या इस लिए कि क्रूर ब्राह्मण पेशवाओं के चलते उन्हें पीछे झाड़ू आगे मटकी लगा कर नर-पशु बन जीना पड़ा था; और जब उन्होंने बदला लिया 1818 में तो एक दूसरे तरह का प्रोजेक्ट बन गया लम्बे आरसे तक का! या उन आदिवासियों के लिए जिन्हें अपनी स्टेट्स तो मिल गयीं पर जीना अपनत्व के आधार पर नहीं हुआ बल्कि नव-विशिष्ट वर्ग की राज-संस्कृति की शर्तों पर !एक और बात. लेखक ने कई जगह आरक्षण की बात की. पर इस पाठक का विचार है कि आरक्षण कोई प्रोजेक्ट नहीं. पर इसे एक सामाजिक न्याय का प्रकल्प बना कर जन-राजनीति का सिद्धांत बना लिया जाता है. आरक्षण सामाजिक न्याय और विकास का प्रकल्प नहीं पर थोड़े समय का साधन मात्र है | एड हॉक संतुष्टि पत्र है | प्रकल्प तो बराबरी और सामाजिक, नैसर्गिक और प्रोडक्शन के साधन पर बराबरी के हक़ का है. आप समाज में विषमताओं के साथ बराबरी कायम नहीं कर सकते. आरक्षण हमें इतिहास के एक छोटे समय में राहत दे सकता है - जो कि जस्टीफ़ाइड भी है. पर वह "जाति" को "जाति" ही रखेगा.एक घेरे में| हमें घेरों में नहीं रहना; समेट लेना है सबको. तो तय करना होगा सब पिछड़ों को, कि घेरे में रह कर, जाति को ज़िंदा रखना है? या रावण जब सामने आये तो परंपरा तोड़ देना और उसे दान नहीं देना. छलावे में नहीं आना (जब दुष्टता किसी पारम्परिक मिथक के वेश में ख्वामखाह अनिवार्यता बन कर खड़ी हो जाये तो घेरों और दुष्टता - दोनों को समाप्त कर देना ही पृथ्वी-सभ्यता-मूलक अस्तित्व विकल्प है ) .आरक्षण का पूरा लाभ उठाना है पर यह भूलना नहीं चाहिए; जैसे श्री औरोबिन्दो ने भी कहा बंदेमातरम के एक संस्करण में , जातिप्रथा को समाज से हटना होगा. आरक्षण मनुवादी कर्मकांडी कुसंस्कृति का आधुनिक, और कुछ हद तक शिष्ट संस्करण है. पर एक बात पक्की है कि आरक्षण-आधारित राजनीति जातिवादी प्रवृत्ति का उकसानावाद है. यह बदलाव का एक साधन अवश्य है और इसका पूरा उपयोग किया जाना चाहिए- हमारे सह-नागरिकों द्वारों. पर आरक्षण लक्ष्य नहीं है . यह किसी बदलाव के प्रोजेक्ट का हिस्सा न हो कर बदलाव को रोक कर रखने का रोड बैरियर है. बैरियर को तोड़ने के प्रोजेक्ट में शिक्षा-समृद्ध हो कर,राजनीतिक सत्ता को बूट पोलिश बना कर कहने योग्य होना होगा: "मैं आज भी फेके पैसे नहीं लेता." और इसी लिए जातिप्रथा को जाति की परंपरा से उठ कर एक नया नैरेटिव देना होगा- आर्थिक बराबरी के नए सन्दर्भ में.पर जैसे इस पाठक- समीक्षक ने दूसरे शब्दों में ऊपर कहा; ऊपर से दिखने वाली हर ख़ुशी या निराशा और उसका बूझा हुआ कारण ज़रूरी नहीं कि वैसा ही सीधा कारण-और-प्रभाव हो जैसा वह दिखता है. हर प्राकृत और मनुष्य-प्रेरित क्रिया का असली कारक कोई एक सन्दर्भ होता है ....... ..... ...... ...... शांतचित्त हो ध्यान लगाएं तो पाएंगे कि यह नवनिर्माण की बेला है क्योंकि एक बड़ी मंडी की लम्बी बीमारी के बाद मृत्यु हो चुकी है. जय भीम ठीक है| लाल सलाम ठीक है| नेहरू जी का फेबियन सोशलिज्म और महात्मा गाँधी का उस वक़्त का अभियान भी हो चुका | उस काल के आगे, आज, मूर्तियों के देवत्व को आपका शरीर चाहिए. आपका, आप जैसों का, शरीर और वाणी. वो जो अंदर हैं उनकी उमर . वो जो बाहर हैं; जिनको है सहारा मेहनत का- उनके कदम.सबकी पीड़ा, अपने दुःख की और उन सब के दुःख की, एक अद्वितीय सन्दर्भ हैं एक महान परिवर्तन का आगाज़ लिए. नए भीम चाहियें, नए भगत सिंह चाहियें, नए लक्ष्मण, रतन, ऋतू, मैं, तुम, वोह और जो खरीद कर पढ़ रहा है आपकी पुस्तक. मूर्ती को तो कोई भी खरीद कर, बना कर, चढ़ा कर, सजा कर पूज सकता है | अच्छे विश्वविद्यालगों में तो हर पल उनकी- उन सब नयों की- प्राण प्रतिष्ठा; हाँ हाँ प्राण-प्रतिष्ठा, भविष्योन्मुख, विद्वता संपन्न, साथी मास्टरों द्वारा और संपन्न पुस्तकालयों में होती है-- जैसे साथी लेखक की हुई एक शिक्षा-समर्पित विद्यार्थी के रूप में. जैसे उन्होंने की एक अध्यापक बन कर. गुरु-शिष्य परंपरा केवल आश्रमों में ही नहीं थी; वह एक सार्वभौमिक तथ्य है मूक मूर्तियों को प्राण प्रतिष्ठित करने का. पर आचार्यों को आचार्य न समझा जाये और रोजनदारी में बाँध कर राजनीति की जाए तो समाज को इस से हानि ही हानि होना निश्चित है. गुरु का, आचार्य का, प्रोफेसर का मेरिटोरियस होना भी एक जीवंत और आगे बढ़ने वाले समाज के लिए आवश्यक है. प्रोफेसर की डायरी का यही कहना है. प्रोफेसर बनना , अध्यापक बनना मेरी पहली करियर चॉइस थी. (अधिकांशतः तो महाविद्यालयों और विश्ह्वविद्यालयों मैं अध्यापक बनना एक रेसिडुअल केटेगरी ऑफ़ करियर बन कर रह गया है.). मैं काबिल था इसके कि अपने विद्यार्थियों के देवत्व जगा कर मनुष्य बना दूँ; पर उनकी राजनीति ने मंज़िलें गिरा डालीं.याद है न आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी का एक शिष्य को दिया वह ब्रम्ह सूत्र! " ....वास्तव में गुरु वह है जिसके सामने जाने पर तेरे व्यक्तित्व का सर्वोत्तम पक्ष उजागर हो, जो तेरे भीतर सोये देवत्व को जगा दे"(अनामदास का पोथा ). मुनि रैक्व का देवत्व जागा था संसार की श्रेष्ठता, परिष्करण और स्वः-शक्ति को प्राप्त कर. काश ! हम आज के अर्धसत्य, असत्य और भ्रामक समाचार और लेख छापने वाले अधिकांश समाचारपत्रों के साथ "फ्री" मिलनेवाले चमकीले उपभोग विज्ञापनों की रद्दी से निकल कर आगे बढ़ने योग्य हो जाएं. मनुष्य के निरंतर विकास और सच्ची बराबरी का ज्ञान बांटती पुस्तकें पढ़ें. हम हों.
S**
शिक्षकों में वर्गभेद और व्यवस्था का शोषण
"जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नही लिखेंगे, तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की बहादुरी के किस्से गाये जाते रहेंगे।" चिनुआ अचेबे ( अफ्रीकन इतिहासकार)डॉ.लक्ष्मण यादव द्वारा लिखित 'प्रोफेसर की डायरी' समकालीन भारतीय उच्च शिक्षा की दशा एवम् दिशा का सजीव चित्रण करने वाली एक शानदार पुस्तक है। वर्तमान भारत की उच्च शिक्षा और संस्थानों की दुर्दशा के लिए कांग्रेस,भाजपा से कम जिम्मेदार नही है। दोनों की नीतियां एक ही थैले के चट्टे बट्टे जैसी रही है दोनों ही उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण करना चाहते है दोनो के लिए शिक्षा समाज उत्थान, लोक कल्याण के बजाय बिजनेस है।। बिजनेस लोक कल्याण नही देखता वह सिर्फ मुनाफा देखता है क्योंकि घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या।।अब जब भी भारत की उच्च शिक्षा की स्थिति पर गम्भीर चर्चा - परिचर्चा होगी या लिखा जायेगा तब-तब इस पुस्तक से सन्दर्भ (Reference) लिया जाएगा जैसा कि एनी फ्रैंक की पुस्तक ' द डायरी ऑफ यंग गर्ल ' (The Dairy of Young Girl) से दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हिटलर द्वारा नीदरलैंड और यहूदियों पर की गई उसकी बर्बरता के लिए जिक्र किया जाता है। उसी तरह प्रोफेसर की डायरी में 21 वीं सदी के भारतीय उच्च शिक्षा के लिए होगा।। यह पुस्तक भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों के अकादमिक और नैतिक पतन का ब्यौरा बहुत ही सहज और सुगम रूप में उपलब्ध करवाती है। जिन पर तार्किक, समतावादी और न्यायप्रिय पीढ़ी तैयार करने जिम्मेदारी थी वे ही अन्याय और असमानता के नेतृत्वकर्ता बन गए। जो अध्यापक स्वयं शोषण, असमानता और अन्याय शिकार हो, वह भला किस नैतिक बल से शोषण असमानता और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने वाली पीढ़ी को तैयार कर सकेगा। साथ ही यह पुस्तक शिक्षकों के मध्य स्थायी और अस्थायी के नाम पर उत्पन्न वर्गभेद के लिए भी याद की जाती रहेगी कि किस प्रकार व्यवस्था अपनी कुंसित मानसिकता से समान योग्यता रखने वालों को स्थायी (परमानेंट) और अस्थायी (एडहॉक, गेस्ट) के नाम पर वर्गीकृत कर दिया था? जिसमें एक स्वयं को अत्यधिक काबिल और दूसरे की काबिलियत पर प्रश्नचिह्न की भावना लिए घूमता फिरता है (कुछ अपवाद भी है जो इस व्यवस्था की कुटिल चाल को समझते है)।अस्थायी शिक्षकों/कर्मियों का वर्ग किसी भी संस्थान का एक ऐसा अधिकार विहीन वर्ग होता है जो कम भुगतान पर गुमनाम रहकर सब काम करने को अभिशप्त होता है और अपने जैसे दिखने वालों के मध्य में सौतेला व्यवहार सहने को मजबूर होता है। वह एक ऐसे नख दंत विहीन प्राणी के समान होता है जिसे सभी प्रकार के हथियारबंद प्राणियों के साथ रहना और काम करना होता है। व्यवस्था ने उसे सब्जी में पड़ने वाले तेजपत्ता मानता है जिस प्रकार तैयार सब्जी में से सर्वप्रथम खाने से पूर्व तेजपत्ते बाहर किया जाता है ठीक उसी प्रकार काम/उद्देश्य पूरा होने के पश्चात अस्थायी कर्मियों को निकाल फेका जाता है। वह चाहे जितना अच्छा काम क्यों न कर लेता हो उसे उस व्यवस्था में दया और कृपा का ही पात्र माना जाता है।। यह पुस्तक छात्रों एवम् शिक्षकों के संगठनों की जरूरत क्यों है के लिए भी याद की जायेगी कि यदि नेतृत्वकर्ता संगठन सशक्त, संघर्षशील और निष्पक्ष हो तो व्यवस्था की सभी कुटिल नीतियों को ध्वस्त किया जा सकता है जैसे रोस्टर आंदोलन।पुस्तक की सबसे महत्वपूर्ण सीख है कि जो राजनीति नहीं करते या बचते है वे भी व्यवस्था की राजनीति के शिकार हो जाते है यानी वे भी मारे जाते है जो मरने के भय चुप रहते है। जैसा की चे ग्वेरा कहते है कि मैंने कब्रिस्तान में उनकी भी कब्रें देखी है जिन्होंने इसलिए संघर्ष नही किया कि कही वे मारे न जाए।जब कोई पुस्तक अपनी कहानी सी हो तो उसे पढ़ते हुए 'समय और शब्द ' दोनों कम से लगने लगते है.... पीएचडी के लिए कतारबद्ध युवाओं को 'प्रोफेसर की डायरी' एक बार जरूर पढनी चाहिए और उन युवाओं को तो एकदम से पढ़ लेनी चाहिए जो पीएचडी नौकरी पाने के उद्देश्य करना चाह रहे है। ये उनको हतोत्साहित करने के लिए नही बल्कि सतर्क रहने के लिए बोल रहा क्योंकि आज उच्च शिक्षा में गॉडफादर विहीन पीएचडी और उससे रोजगार की उम्मीद करना किसी भी युवा के लिए घने जंगल में भटक जाने जैसा होता है। यदि थोड़ा सा भी उसका ध्यान भटक गया तो पता नही कौन सा जानवर उस पर झप्पटा मार जाए। यह खतरा उन युवाओं के लिए और अधिक होगा जिनमें रीढ़ यानी गलत को गलत और सही को सही कहने की हिम्मत या आदत होगी। वे चाहे किसी भी वर्ग (आरक्षित और अनारक्षित) के हो उनका शिकार होना लगभग तय है क्योंकि कुर्सीधिशों/सत्ताधीशों को प्रश्न करने वाला नहीं,उत्तर सुनने वाला चाहिए यानी उनको वे पसन्द आयेंगे जो गूंगे तो हो किन्तु बहरे न हो... इसमें योग्यता और अयोग्यता का कोई मामला नही है क्योंकि जो चयनित होते वे और जो चयनित नही होते वे दोनों न्यूनतम योग्यता धारण करते है।
A**R
Professor ki diary
This book is very important part of our social life daily chalanges practically in life
A**L
Very interesting and informative book
Eye opening details of appointments in universities and colleges.Must read book.Ashok GoelArchitectAshok Dilliwala Show on YouTube.
C**R
Nice book
A must read
V**�
All the best
Nice Book
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2 weeks ago
1 month ago